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Wednesday, August 11, 2010

वो बेनूर शाम...

ज़ुल्फों में उसकी उलझी थी मेरी अंगुलियां
उस बेनूर शाम में दो जिस्म थे रोशन

होंठों तक का सफर जल्द ही पूरा हुआ
पर कशमकश में डूबी थी उसकी धड़कन

बाहर सर्दी का, अदंर था प्यार का कोहरा
दोनों के बीच न रही कोई चिलमन

कुछ यूं कैद हुई उसकी खुशबू मेरी सांसों में
तसव्वुर से ही महक उठता है तन-मन

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